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गुरुवार, 30 अक्टूबर 2008

एक सफ़ेद कबूतर

इस बार एक कविता हर्ष की, जिसे उनके ब्लॉग से लेकर इधर दे रही हूँ आप सबके लिए।

एक सफ़ेद कबूतर,

उसके दो पर,

एक इधर,

एक उधर।

दो व्यक्ति,

पहने हुए,

सफ़ेद धोती,

सफ़ेद कुर्ता,सफ़ेद टोपी,

एक सफ़ेद कबूतर के इधर,

एक उधर,

नोचने को तैयार,

सफ़ेद कबूतर के पर।

अगली सुबह,

सफ़ेद कबूतर माँग रहा था प्राणों की भीख,

बेचारा चिल्लाय भी तो कैसे,

चिल्लाना शोभा नहीं देता उसे,

जो हो शांति का प्रतीक।

-हर्ष

सोमवार, 27 अक्टूबर 2008

देश के सच्चे सपूत कहाना

छुटपन की कवितायें के लिए मैंने रेखा दी से अनुरोध किया। वे मान गई और अपने बचपन की एक कविता लिख के भेजी है, जिसे आपको पेश कर रही हूँ। आप भी हमे अपने बचपन में सुनी कवितायें भेजें, ताकि हमारी नन्ही पीढी इन्हें दुहरा सकें। कवितायें gonujha.jha@gmail.com पर भेजें।

"यह कविता मैंने बचपन में जब १९६२ में चीन की लडाई चल रही थी तो अपने स्कूल में पढ़ी थी १५ अगस्त को।"

सीमा को जाता है भाई,

बहन बधाई देने आई,

आंसू अपने रोक न पाई,

फिर भी यह कहकर मुस्काई।

देखो भैया वचन निभाना,

पीठ दिखा कर भाग न आना,

देख रहा है तुम्हें जमाना,

मत माता का दूध लजाना।

दुश्मन को तुम जाके भागना,

भारत माँ की लाज बचाना,

सीना चौडा करके आना,

देश के सच्चे सपूत कहाना

- रेखा श्रीवास्तव