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रविवार, 1 जून 2008

१,२,१०

स्वप्निल कि भेजी एक और कविता-

"१,२,१०
ऊपर से आई बस
बस ने मारी सीती
ऊपर से आया टीटी
टीटी ने काटी पर्ची
ऊपर से आया दर्जी
दर्जी ने सिली पैंट
ऊपर से आया टैंक
टंक ने मारा गोला
मेरा रंग दे बसंती चोला
- स्वप्निल

3 टिप्‍पणियां:

Rajesh Roshan ने कहा…

अपनी भतीजी की याद आ गई. और अपने बचपन के दिन. वो भी क्या दिन थे... बहुत बढ़िया. मैंने आपका यह ब्लॉग देखा ही नही था... बड़ी बेहतरीन चीज लाई हैं

पी के शर्मा ने कहा…

मुझे तो अपने बचपन के दिन याद आ गये।
बहुत अच्‍छा प्रयास है बालपन की बालमन की कविताई करना । ब्‍लागर को धन्‍यवाद

Udan Tashtari ने कहा…

बच्चों के मौलिक प्रयास कितने मनभावन होते हैं, यह रचना वही साबित करती है. स्वपनिल को बधाई.