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गुरुवार, 30 अक्टूबर 2008

एक सफ़ेद कबूतर

इस बार एक कविता हर्ष की, जिसे उनके ब्लॉग से लेकर इधर दे रही हूँ आप सबके लिए।

एक सफ़ेद कबूतर,

उसके दो पर,

एक इधर,

एक उधर।

दो व्यक्ति,

पहने हुए,

सफ़ेद धोती,

सफ़ेद कुर्ता,सफ़ेद टोपी,

एक सफ़ेद कबूतर के इधर,

एक उधर,

नोचने को तैयार,

सफ़ेद कबूतर के पर।

अगली सुबह,

सफ़ेद कबूतर माँग रहा था प्राणों की भीख,

बेचारा चिल्लाय भी तो कैसे,

चिल्लाना शोभा नहीं देता उसे,

जो हो शांति का प्रतीक।

-हर्ष

2 टिप्‍पणियां:

manvinder bhimber ने कहा…

बहुत सुंदर भाव-प्रवण कविता
सफ़ेद कबूतर के पर।

अगली सुबह,

सफ़ेद कबूतर माँग रहा था प्राणों की भीख,

बेचारा चिल्लाय भी तो कैसे,

चिल्लाना शोभा नहीं देता उसे,

adil farsi ने कहा…

bahut achi kavita ha