chhutpankikavitayein

www.hamarivani.com

शुक्रवार, 14 मार्च 2008

अटकन मटकन

फ़िर से यादआ गई एक और कविता। निर्मल प्रेम और त्याग की झलक इसमें दिखाती है, जब कहा जाता हैकि वह तो ख़ुद कच्ची सुपारी खाने के लिए तैयार है, जब कि उसे पकी सुपारी दी जायेगी। आप जानते होंगे, कच्ची सुपारी की तासीर। फ़िर भी, यह प्रस्ताव!

अटकन मटकन दही चटाकन

अए बेला तू वन जा

वन से कसैली (सुपारी) ला,

हम खाएब कच्चा-कच्चा

तोरा देबौ पक्का -पक्का

राजा बेटा अयिहें

पोखरी खनायिहें

पोखरी के भीड पर

अस्सी कौउअया

अंडा गिरे रेस में

मच्छ्ली के पेट में।

3 टिप्‍पणियां:

गुस्ताखी माफ ने कहा…

हम तो एसे गाते थे.

अटकन मटकन दही चटाकन
बरफूले बंगाली
बाबा लाये चार कटोरी
एक कटोरी टूटी
बाबा की बहू रूठी
काये बात पै रूठी
दही बूरे पै रूठी

Vibha Rani ने कहा…

are, bahut khoob!.har jagah alag-alag tarah se gaate hain, kahate hain.

सुजाता ने कहा…

लोक रंग खूब समां बान्ध रहा है ..