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गुरुवार, 5 जून 2008

कुछ कवितायें- खेल-खेल की

स्वप्निल ने एक कविता दी तो दो -तीन मुझे भी यद् आई। आपके सामने हैं ये। बस ज़रा खेल के मूड में आइये और मेज़ लीजिए-

जिप-ज़िप जू
कभी ऊपर, कभी नीचे
कभी दायें, कभी बाएँ
कभी आगे, कभी पीछे
कभी थप्पड़, कभी घूंसे
(अन्तिम लाइन बोलते हुए दो बच्चे एक दूसरे को प्यार से थापदियाते हैं।)
-स्वप्निल
( इन दोनों ही खेलों में सभी बच्चे एक लाइन में अपने दोनों पैर सामने की और फैलाकर बैठ जाते है। एक बच्चा इन पंक्तियों को बोलते हुए सभी के पैरों पर अपने हाथ फिराता है। बारी बारी से वह सभी बच्चों के नाम लेता है। अन्तिम पंक्ति पर सभी ताली बजाते हैं।)
ओल कटारा-बोल कटारा
एगो दिम्भा (पका कोई भी फल) पाया
हमने- स्वप्निल ने खाया
स्वप्निल की माँ से झगडा हुआ
धर दैन्या, धर दियां,
बीडी- सुपारी- बीडी- सुपारी।"

अतारो-पत्रो
सीमा गेल सीम तोड
नीमा गेल नीम तोड
कुछ दो तो रे भाई
(अन्तिम पंक्ति पर हाथ फेरानेवाला बच्चा जिस बच्चे के सामने हाथ पसारता है। वह बच्चा उसे कुछ देने का अभिनय करता है और इस तरह से खेल चलता रहता है।)

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

:) जारी रहिये.