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सोमवार, 14 दिसंबर 2009

चिडिया चली चांद के देश

इस बार की कविता कोशी की याद से. आप भी अपनी याद को जरा टटोलिए और अपनी कविता हमें भेजें इस ब्लॉग के लिए- gonujha.jha@gmail.com पर

चिडिया चली चांद के देश

नन्हें नन्हें पंख संवारे

साथ ना कोई संगी साथी

चली अकेले बिना सहारे

ऊपर को वो उडती जाए

बडे मज़े से गाना गाए,

अपने नन्हे पंख हिलाती

ऊंचा उडना उसको भाए

रविवार, 13 दिसंबर 2009

छोटी चिडिया चक चक चूं

इस बार की कविता कोशी की याद से. आप भी अपनी याद को जरा टटोलिए और अपनी कविता हमें भेजें इस ब्लॉग के लिए- gonujha.jha@gmail.com पर

छोटी चिडिया चक चक चूं
तेरी चोंच ना ठहरे क्यूं

फुदक फुदक फुदक रही,
डाल डाल पर चहक रही
उडे फर फर फर फर फूं

छोटी चिडिया चक चक चूं
तेरी चोंच ना ठहरे क्यूं.

सोमवार, 9 नवंबर 2009

बी सैलानी क्या कहती हैं?


इस बार की कविता पाकिस्तान के एक अज़ीम शायर और अदीब अहफाज-उर-रहमान की. हिन्दुस्तान के जबलपुर में पैदा हुए रहमान साहब पाकिस्तान के मशहूर लेखक और शायर के साथ साथ वहां के तेज़ तर्रार पत्रकार भी हैं. उन्होंने एक साथ पाकिस्तान की तानाशाही सत्ता और प्रेस की आज़ादी और मीडिया कामगारों के लिए लडाइयां लडी हैं. अबतक उनकी 18 किताबें शाया हो चुकी हैं. फरवरी 2008 का दिन पाकिस्तानी अदब का एक ऐतिहासिक दिन था, जब रहमान साहब की एक साथ चार किताबें आईं. उनकी यह कविता खास तौर से इस ब्लॉग के लिए महनाज़ साहिबा ने मुहय्या कराई हैं. दोनों का आभार. आप भी अपनी यादों के झरोखे से बचपन की कुछ कविताएं हमें भेजें gonujha.jha@gmail.com पर.

बी सैलानी क्या कहती हैं?

बी सैलानी क्या करती हैं?

सुबह सवेरे उनका नारा

गूंज उठा है घर के अन्दर

जाऊंगी मैं घर के बाहर

म्याऊं म्याऊं से मैं खेलूंगी

दूध से उसको नहलाऊंगी

वो उछलेगी, गुर्राएगी

मैं नाचूंगी, इतराऊंगी

उसकी मोटी दुम खेंचूंगी

मैं झपटूंगी, वो भागेगी

सब कहते हैं दम तो ले लो

पहले अपना मुंह तो धो लो

मुंह धो कर कुछ खाना खा लो

वो कहती है नो नो नो

खाना वाना क्या खाना है

मुझको तो बाहर जाना है.

रविवार, 25 अक्टूबर 2009

आज पिया की सालगिरह है

इस बार एक कविता पाकिस्तान से। इसे महनाज़ रहमान ने भेजा है। महनाज़ एक पत्रकार हैं, लेखक हैं, बहुत ही संवेदनशील इनसान हैं। कई एन जी ओ के लिए काम करती हैं। २३ साल से हमारी उनकी दोस्ती है। हमारी गुजारिश पर उन्होंने ये कविता भेजी है। आप सबसे भी अनुरोध है की अपनी यादों के पिटारे से एकाध कविता हमें भेजें। gonujha.jha@gmail.com पर।

पिया ने मेकअप कर डाला है,
बन ठन कर बाहेर आये हैं
सारी महफिल पर छाई है
अब किस बात की देर है मामा
चलें, चलकर केक तो काटें,
उछलें, कूदें, नाचे, गाएं
आहा, आहा, आहा,
आज पिया की सालगिरह है
सालगिरह में बडा मज़ा है.

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

यह कदंब का पेड़- सुभद्रा कुमारी चौहान

मेरे अनुरोध पर संपादक (सृजनगाथा) जयप्रकाश मानस ने अपने बचपन के पिटारे से यह कविता भेजी हैं। उनके ही शब्दों में - "भूला नहीं अब तक । शायद तीसरी या चौंथी में पढ़ा था । कदंब का पेड़ तो था नहीं हमारे घर के आसपास । पर गीत का प्रभाव इतना था कि जब भी दोस्तों के साथ खेलते-फांदते नजदीक के जंगल में चले जाते और किसी फलदार पेड़ पर चढ़कर दहीकादो जैसे खेल खेलते तो मन के भीतर सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा लिखा यही गीत गूँजने लगता । शायद इसी गीत के ताल, छंद, लय और भाव का इतना प्रभाव मन पर पड़ा कि मेरे लेखन की शुरुआत भी बाल गीतों से हुई । खैर... आप भी गुनगुनाइये यह गीत. " आप भी अपनी कवितायें भेजें - gonujha.jha@gmail.com पर।

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।
ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।
तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।।
वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।।
बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।।
तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।।
तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।।
तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं।।
इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।।
- जयप्रकाश मानस

सोमवार, 17 अगस्त 2009

अंगूर का अनार

कुछ बच्चियों ने मिलकर बनाया एक ब्लाग- http://paripoems।blogspot.com/ यह कविता वहीं से ली गई है। आप भी अपनी पिटारी खोलें और कवितायें भेजें gonujha.jha@gmail.com पर ।

बात है यह बहुत पुरानी

खा रही थी अंगूर एक रानी

बीज उसके गले में फंसता

यह देख कर भाई उसका बहुत हंसता

जितने भी अंगूर वह पाती

बीज निकाल कर ही खाती

बीज वह बगीचे में बोती

अंगूर होंगे खूब, वह सोचती

बीते कई महीने-साल

अंगूर ना उगा

पर उग गया अनार

रविवार, 16 अगस्त 2009

क्योंकि पेड़ है जीवन डोर

कुछ बच्चियों ने मिल कर एक ब्लॉग बनाया उन्हीं में से एक कविता यहाँ है। आप भी पढें और अपनी यादों के पिटारे से कवितायें भेजे इस ब्लॉग पर देने के लिए- पर

पेड़ों के कट जाने के बाद

बचेगी नहीं ये zindagii

पूछते हो क्यों

क्योंकि पेड़ है जीवन डोर

पेड़ कट जाने के बाद

हो जाएंगे हम बर्बाद

पूछते हो क्यों?

क्योंकि बचेगा ना कोई आहार

पेड़ कट जाने के बाद

जल जाएगी ये ज़मीन

पूछते हो क्यों?

क्योंकि छाया न होगी फिर कभी

पेड़ कट जाने के बाद

सूखा पड़ जाएगा हर कहीं

पूछते हो क्यों?

क्योंकि बारिश को बुलानेवाला न

होगा कोई ।

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

रिम-झिम बरसा पानी

कुछ बच्चियों ने मिल कर एक ब्लॉग -उन्हीं में से एक कविता यहाँ है। बारिश पर। आप भी पढें और अपनी यादों के पिटारे से कवितायें भेजे इस ब्लॉग पर देने के लिए
रिम-झिम बरसा पानी
लो भर जाते हैं सागर नाली
नाचते है भालू मोर
बच्चे खूब मचते शोर
आते हैं जब बदल काले काले
होती है बरसात हौले हौले
कड़की बिजली
लो बारिश गिरी
आती है जब बरसात
लाती है हर्याली साथ
जब बारिश को ग़ुस्सा आये
घर पर्वत भी उड़ ले जाये
पर बारिश न होगी जब
जीवन भी न बचेगा तब

शनिवार, 13 जून 2009

पुरानी यादे ताज़ा करो।

मेरे अनुरोध पर सोनाली सिंह ने अपने बचपन के पिटारे से कुछ कवितायें भेजी हैं। सोनाली सिंह हिन्दी की युवा कथा लेखक हैं। इनकी अभी-अभी एक कहानी "हंस" के मई, २००९ अंक में छपी है- "क्यूतीपाई । आप भी अपने यादों के पिटारे से कवितायें भेजें- gonujha.jha@gmail.com पर।

पुरानी यादे ताज़ा करो।

1।) मछली जल की रानी है,

जीवन उसका पानी है।

हाथ लगाओ डर

जायेगीबाहर निकालो मर जायेगी।

2।) पोशम्पा भाई पोशम्पा,

सौ रुपये की घडी चुराई।

अब तो जेल मे जाना पडेगा,

जेल की रोटी खानी पडेगी,

जेल का पानी पीना पडेगा।

थै थैयाप्पा थुशमदारी बाबा खुश।

3।) झूठ बोलना पाप है,

नदी किनारे सांप है।

काली माई आयेगी,

तुमको उठा ले जायेगी।

4।) आज सोमवार है,

चूहे को बुखार है।

चूहा गया डाक्टर के पास,

डाक्टर ने लगायी सुई,

चूहा बोला उईईईईई।

5।) आलू-कचालू बेटा कहा गये थे,

बन्दर की झोपडी मे सो रहे थे।

बन्दर ने लात मारी रो रहे थे,

मम्मी ने पैसे दिये हंस रहे थे।

6।) तितली उडी, बस मे चढी।

सीट ना मिली,तो रोने लगी।

ड्राईवर बोला आजा मेरे पास,

तितली बोली " हट बदमाश "।

शुक्रवार, 30 जनवरी 2009

जालिम सरकार मिटायेंगे

उत्तर प्रदेश के इटावा शहर के छिपती मुहल्ले में ९ अक्टूबर, १९०५ को जन्मे छैलबिहारी दीक्षित 'कंटक' हिन्दी के संभवत: पहले ऐसे कवि थे, जो कविता लिखने के कारण जेल गए। तब अंग्रेजों का दमन चक्र जोरों पर था और इनकी लेखनी में एक आग थी, जिसकी आंच से ब्रिटिश नहीं बच सके। फ़िर तो उनके ऊपर राजद्रोह का आरोप लगाकर इनकी तीन कविताओं को राजद्रोही करार दिया गया और प्रत्येक कविता के लिए अलग-अलग एक-एक वर्ष की सज़ा सुनाई गई। बाद में तो जेल इनके लिए दूसरा घर हो गया। नवनीत पत्रिका के अगस्त, २००८ के अंक में छैलबिहारी दीक्षित पर एक पूरी सामग्री दी हुई है। यहीं पर वह कविता भी, जिसके कारण 'कंटक' जी को पहली बार जेल जाना पडा। आप भी यह कविता देखें। चाहे तो इसे आज के सन्दर्भ में भी देख सकते हैं।

वेदी पर शीश चधायेंगे,
जालिम सरकार मिटायेंगे।
जोशीले गाने गाने दो, आफत पर आफत आने दो,
सर जाता है तो जाने दो, लेकिन मत क़दम हटाने दो,
जीवन की ज्योति जगायेंगे
हम बलिवेदी पर जायेंगे,
जालिम सरकार मिटायेंगे।

बज रहा बिगुल आजादी का, बाना पहिना है खादी का,
है मोह न हमको गाडी का, डर यहाँ किसे बर्बादी का,
जेलों में अलख जगायेंगे,
हम बलिवेदी पर जायेंगे,
जालिम सरकार मिटायेंगे।

मन के सुख-दुःख की लड़ियों का, भय छोड़ चलो फुलाझादियों का,
स्वागत कर लो हथाकादियों का, जीने-मरने की घड़ियों का,
प्राणों की भेंट चधायेंगे,
हम बलिवेदी पर जायेंगे,
जालिम सरकार मिटायेंगे।

सुनकर संघर्षों की बोली, बढ़ चली शहीदों की टोली,
है अंधाधुंध चलती गोली, निर्भय सबने छाती खोली,
भारत स्वाधीन बनायेंगे,
हम बलिवेदी पर जायेंगे,
जालिम सरकार मिटायेंगे।

मुठभेड़ बीच में मत छोडो, ज़ंजीर गुलामी की तोडो,
भारत माँ से नाता जोडो, डर से डर कर मुंह मत मोडो,
गौरव स्वदेश का गायेंगे,
हम बलिवेदी पर जायेंगे,
जालिम सरकार मिटायेंगे।
- साभार, नवनीत

मंगलवार, 20 जनवरी 2009

स्वतंत्रता

स्व राम नरेश त्रिपाठी की यह रचना अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्व की बात कहती है। सन १८८६ में जन्मे इस कवि के मन में आजादी की ललक कैसी रही होगी, यह सहज ही समझा जा सकता है। १९६२ में, देश जब तरह-तरह क्र परिवर्तनों के दौर से गुजर रहा था, तब इस कवि को मौत ने अपने पास बुला लिया। प्रस्तुत है उनकी यह कविता। २६ जनवरी यानी हमारा गणतंत्र दिवस पास में है। यह कविता ऐसे में और भी मौजू हो जाती है, ख़ास कर आज के समय में।

एक घडी की भी परवशता कोटि नरक के सम है
पल भर की भी स्वतंत्रता सौ स्वर्गों से उत्तम है।
जब तक जग में मान तुम्हारा तब तक जीवन धारो,
जब तक जीवन है शरीर में, तब तक धर्म न हारो।
जब तक धर्म, तभी तक सुख है, सुख में कर्म न भूलो,
कर्म भूमि में न्याय मार्ग पर छाया बन कर फूलो।
जहाँ स्वतन्त्र विचार न बदलें मन से आकर मुख में,
बने न बाधक शक्तिमान जन जहाँ निर्बल के सुख में
निज उन्नति का जहाँ सभी जन को अवसर समान हो
शान्तिदायिनी निशा और आनंद भरा वासर हो
उसी सुखी स्वाधीन देश में मित्रो! जीवन धारो
अपने चारु चरित से जग में प्राप्त करो फल चारो।
- साभार, राम नरेश त्रिपाठी

धरती स्वर्ग समान है.

आज पढ़ते-पढ़ते अचानक गोपाल दास सक्सेना 'नीरज' की यह कविता हाथ लगी। नीरज जी बहुत अच्छे कवि व गीतकार हैं, जिनका सम्मान हिन्दी साहित्य ने अपनी गुटबंदी के कारण नहीं किया। मगर वे इसके मुन्हाताज़ न हो कर अपनी रचना प्रक्रिया में लीं रहते आए हैं। यह कविता उनके प्रति पूरे आदर व् सम्मान व्यक्त करते हुए ली जा रही है।

जाती-पाती से बड़ा धर्म है
धर्म-ध्यान से बड़ा कर्म है
कर्मकांड से बड़ा मर्म है
मगर सभी से बड़ा यहाँ यह छोटा सा इंसान है,
और अगर वह प्यार करे तो धरती स्वर्ग समान है।

जितनी देखी, दुनिया सबकी, देखी दुल्हन ताले में,
कोई क़ैद पडा मस्जिद में, कोई बंद शिवाले में
किसको अपना हाथ थमा दूँ, किसको अपना मन दे दूँ
कोई लुटे अंधियारे में, कोई ठगे उजाले में

सबका अलग-अलग थान - गन है
सबका अलग-अलग वंदन है
सबका अलग-अलग चंदन है
लेकिन सबके सर के ऊपर नीला एक वितान है
फ़िर क्यों जाने यह सारी धरती लहू-लुहान है?
हर खिड़की पर परदे घायल आँगन हर दीवारों से
किस दरवाजे करून वन्दना, किस देहरी मत्था टेकून
काशी में अंधियारा सोया, मथुरा पटी बाज़ारों से,
हर घुमाव पर छीन-झपट है
इधर प्रेम तो उधर कपट है
झूठ किए सच का घूंघट है
फ़िर भी मनुज अश्रु की गंगा, अबतक पावन प्राण है
और नहा ले उसमें तो फ़िर माना ही भगवान है।
- नीरज