मेरे अनुरोध पर संपादक (सृजनगाथा) जयप्रकाश मानस ने अपने बचपन के पिटारे से यह कविता भेजी हैं। उनके ही शब्दों में - "भूला नहीं अब तक । शायद तीसरी या चौंथी में पढ़ा था । कदंब का पेड़ तो था नहीं हमारे घर के आसपास । पर गीत का प्रभाव इतना था कि जब भी दोस्तों के साथ खेलते-फांदते नजदीक के जंगल में चले जाते और किसी फलदार पेड़ पर चढ़कर दहीकादो जैसे खेल खेलते तो मन के भीतर सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा लिखा यही गीत गूँजने लगता । शायद इसी गीत के ताल, छंद, लय और भाव का इतना प्रभाव मन पर पड़ा कि मेरे लेखन की शुरुआत भी बाल गीतों से हुई । खैर... आप भी गुनगुनाइये यह गीत. " आप भी अपनी कवितायें भेजें - gonujha.jha@gmail.com पर।
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।
ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।
तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।।
वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।।
बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।।
तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।।
तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।।
तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं।।
इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।।
- जयप्रकाश मानस