छुटपन की गठरी में तो जाने कैसी -कैसी अल्लम -गल्लम चीजें भरी हैं . गाँठ ढीली पड़ते ही चारों ओर बिखर जातीं हैं . लगता है कि बचपन तो बस कल ही विदा हुआ है , वो भी फिर - फिर लौटने का वादा करके .... ! बचपन में पाठ्य पुस्तक में पड़ी कविताएँ, याद नहीं पड़ता, कि कभी सायास रटी गयीं थी , लेकिन बस यूहीं जाने कब मन की सतह पर ऐसी छपीं कि फिर कभी भूलीं ही नहीं . ये ऐसी ही एक कविता है जो अब भी जबानी याद है . (शायद अपने भी कहीं पढ़ी हो , मेरे कोर्स में थी.)नहीं पता कि ये रचना किस कवि की है मगर उन्हें प्रणाम ज़रूर करना चाहूगीं कि उन्होंने मेरे बचपन को एक ऐसी कविता दी जो आज भी बारिश होते ही मुझे अपने बचपन में उड़ा ले जाती है.
अम्मा ज़रा देख तो ऊपर,
चले आ रहे हैं बादल,
,दीख रहा है जल ही जल ,
हवा चल रही क्या पुरवाई ,
झूम रही डाली -डाली ,
ऊपर काली घटा घिरी है ,
नीचे फैली हरियाली ,
भीग रहे हैं खेत-बाग-वन,
भीग रहा है घर-आँगन ,
बाहर निकालूँ ,मैं भी भीगूँ ,
चाह रहा है मेरा मन !