यह कविता भी प्रतिमा की यादों से. आप भी अपनी यादों के झरोखे से एकाध कवितायें लाइये, ताकि आज के बच्चे उनका स्वाद ले सकें. भेजें- gonujha.jha@gmail.com पर
इस कविता के लिए प्रतिमा कहती हैं- "याद है मुझे , छुटपन में डुगडुगी बजाता , बच्चों को बुलाता वो मदारी जिसके पास हीरो-हीरोइन जैसे दो बन्दर होते थे, मतलब वो ऐसा कहता था. चश्मा लगाये बन्दर और घाघरा पहने बन्दरिया .. आहा कित्ती प्यारी... मदारी की डुगडुगी पर हम बच्चों का घर से निकलना वैसे ही तय होता था , जैसे पैड्पाइपर के पाइप बजाने पर चूहों का निकलना, फिर चाहे सर्दी हो, बारिश हो , या हो चिलचिलाती धूप का मौसम....! ऐसे में इस कविता का हमें झटपट याद हो जाना कतई आश्चर्य का विषय नही कहा जा सकता..., बचपन बीत गया, मदारी भी कहीं गुम गये, मगर यादों में ये कविता रह गयी....
डम-डम,डम-डम करता आया,
बन्दर वाला , बन्दर लाया,
बन्दर के संग एक बन्दरिया,
पहने थी वो लाल घघरिया,
ठुमुक-ठुमुक कर नाच दिखाती,
माँग-माँग कर पैसे लाती !