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सोमवार, 25 अगस्त 2008

"मौसम" पर एक कविता

सूरज तपता, धरती जलती
गरम हवा जोरों से चलती
तन से बहुत पसीना बहता
हाथ सभी के पंखा रहता
आरे बादल, काले बादल
गरमी दूर भगा रे बादल
रिमझिम बूँदें बरसा बादल
झम-झम पानी बरसा बादल
ले घनघोर घटायें छाईं
टप-टप, टप-टप बूँदें आईं
बिजली लगी चमकने चम्-चम्
लगा बरसने पानी झम-झम
लेकर अपने साथ दिवाली
सरदी आई बड़ी निराली
शाम सवेरे सरदी लगती
पर स्वेटर से है वह भगती।