फ़िर से यादआ गई एक और कविता। निर्मल प्रेम और त्याग की झलक इसमें दिखाती है, जब कहा जाता हैकि वह तो ख़ुद कच्ची सुपारी खाने के लिए तैयार है, जब कि उसे पकी सुपारी दी जायेगी। आप जानते होंगे, कच्ची सुपारी की तासीर। फ़िर भी, यह प्रस्ताव!
अटकन मटकन दही चटाकन
अए बेला तू वन जा
वन से कसैली (सुपारी) ला,
हम खाएब कच्चा-कच्चा
तोरा देबौ पक्का -पक्का
राजा बेटा अयिहें
पोखरी खनायिहें
पोखरी के भीड पर
अस्सी कौउअया
अंडा गिरे रेस में
मच्छ्ली के पेट में।
3 टिप्पणियां:
हम तो एसे गाते थे.
अटकन मटकन दही चटाकन
बरफूले बंगाली
बाबा लाये चार कटोरी
एक कटोरी टूटी
बाबा की बहू रूठी
काये बात पै रूठी
दही बूरे पै रूठी
are, bahut khoob!.har jagah alag-alag tarah se gaate hain, kahate hain.
लोक रंग खूब समां बान्ध रहा है ..
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