छुट्टी कि अब बात चली
छुट्टी ही दिन रात चली
धरो किताबें, कलम, सवाल
सोने हो एक ही हाल
चादर कहीं और हम हों कहीं
पापा और तुम जाओ कहीं
पेट में चूहे दौदें जब
मम्मी देना कुछ भी टैब
लेकिन कुछ भी खाऊँ कैसे
स्वाद मेरे अक्षर के जैसे
खेल -खेल और खेल खेल
चाहे दुनिया गोलामगोल
मुझसे भारी कोई नहीं
मुझसे न्यारी कोई नहीं
घडी की अब ना बात करो
छुट्टी मे संग साथ रहो
तुम भी आओ, मेरे संग
खेलेंगे हम हर इक रंग
मम्मी के संग जाना बाज़ार
पापaa के संग गुडिया बीमार
bhaiya लाए चाट उधार
दीदी की चुन्नी चताखार
ऎसी छुट्टी होए अब
इसमें ही खोएं रहें सब।
2 टिप्पणियां:
बहुत अच्छी रचना..
***राजीव रंजन प्रसाद
khoobsurat si.....masoom kavita.
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