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सोमवार, 25 अगस्त 2008

"मौसम" पर एक कविता

सूरज तपता, धरती जलती
गरम हवा जोरों से चलती
तन से बहुत पसीना बहता
हाथ सभी के पंखा रहता
आरे बादल, काले बादल
गरमी दूर भगा रे बादल
रिमझिम बूँदें बरसा बादल
झम-झम पानी बरसा बादल
ले घनघोर घटायें छाईं
टप-टप, टप-टप बूँदें आईं
बिजली लगी चमकने चम्-चम्
लगा बरसने पानी झम-झम
लेकर अपने साथ दिवाली
सरदी आई बड़ी निराली
शाम सवेरे सरदी लगती
पर स्वेटर से है वह भगती।

सोमवार, 4 अगस्त 2008

"माँ"

कल मेरे एक मित्र ने मुझसे माँ पर कुछ कवितायें मांगी। मित्र के मित्र की बेटी को अपने स्कूल में माँ पर कविता सुनानी थी। मित्र के मित्र की बेटी को यह कविता दी तो ख्याल आया कि इसे इस ब्लॉग पर भी दिया जाए, ताकि अन्य बच्चे भी इसका उपयोग कर सकें। वैसे भी माँ के आगे कोई भी कभी बड़ा हो सका है क्या?
"पता नहीं, कैसा होता है उसका दिमाग कि देह
घुसे रहते हैं उसके दिल में ही
कमल में बंद भौंरों जैसे।
बच्चे को मार पिता की
कलेजा कसकता उसका
एक अच्छी साडी- बेटी के लिए
एक अच्छा बर्तन- बेटी के दहेज़ के लिए
कोई अच्छी चीज़- बच्चों के लिए
मन्दिर में प्रार्थना- कोख, सिन्दूर के लिए
अपना तो कुछ है ही नहीं
न परिभाषा सौन्दर्य की
न उपमान देह- यष्टि की
सच की कंठी तो लीनी ही नहीं
रचाने होते हैं झूठ के कित्ते -कित्ते गीत
मनुहार, लाड- दुलार
खुश रहें बच्चे अपनी विजय पर
हार में भी खिलती है उसकी मुस्कान
मायावी है क्या वह?
उफ़ भी नहीं करती
सूर्य-चन्द्र ग्रहण के लंबे-चौडे कायदे कानून
हर बार एक नया जन्म- बच्चे के जन्म पर
धत! यह पीर भी कोई पीर है?
नवजात का मुख- आनंद ही आनंद!
कलेजे में दूध की धार- फुहार
गाय, बकरी, चुहिया, कबूतरी
सभी में एक ही भाव- यह मादा-भाव
नहीं करती किसी को नाराज़
नहीं बोलती ऊंचा कि सुन ले राहू या शनि
मन-ही-मन उचारती देवी-जाप, हनुमान-चालीसा
करती रहती -सप्तमी, छठ, जितिया
व्रत -उपवास- अनगिनत
माँ हमेशा माँ ही क्यों रहती है?
चिडियां, नदियाँ, फूल-कलियाँ
तारे, मौसम, सब्जी, बगिया
भोजन, बिस्तर, किताब- कापियां
लोरी, सपने, मोर-गिलहरियाँ
सभी के अंग-संग डोलती
नहीं पूछती, नहीं जानती अपना हाल-चाल
माँ का सहारा
बच्चों का आसरा
गला घोंट अपनी कामना का
राख बना... और एक साँस में गटक
बन जाती नील-वर्णी
भरी उमस में भी- नदी, शीत, छाँह
माँ यही होती है क्या?"
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