स्व राम नरेश त्रिपाठी की यह रचना अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्व की बात कहती है। सन १८८६ में जन्मे इस कवि के मन में आजादी की ललक कैसी रही होगी, यह सहज ही समझा जा सकता है। १९६२ में, देश जब तरह-तरह क्र परिवर्तनों के दौर से गुजर रहा था, तब इस कवि को मौत ने अपने पास बुला लिया। प्रस्तुत है उनकी यह कविता। २६ जनवरी यानी हमारा गणतंत्र दिवस पास में है। यह कविता ऐसे में और भी मौजू हो जाती है, ख़ास कर आज के समय में।
एक घडी की भी परवशता कोटि नरक के सम है
पल भर की भी स्वतंत्रता सौ स्वर्गों से उत्तम है।
जब तक जग में मान तुम्हारा तब तक जीवन धारो,
जब तक जीवन है शरीर में, तब तक धर्म न हारो।
जब तक धर्म, तभी तक सुख है, सुख में कर्म न भूलो,
कर्म भूमि में न्याय मार्ग पर छाया बन कर फूलो।
जहाँ स्वतन्त्र विचार न बदलें मन से आकर मुख में,
बने न बाधक शक्तिमान जन जहाँ निर्बल के सुख में
निज उन्नति का जहाँ सभी जन को अवसर समान हो
शान्तिदायिनी निशा और आनंद भरा वासर हो
उसी सुखी स्वाधीन देश में मित्रो! जीवन धारो
अपने चारु चरित से जग में प्राप्त करो फल चारो।
- साभार, राम नरेश त्रिपाठी
1 टिप्पणी:
एक अनमोल कृति
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