This blog is "Poetry meant for Children" so that children of all age group can pick up their favorite from here. You may also participate. Send poems, written or heard by you on gonujha.jha@gmail.com. poems will be published with your name.
सोमवार, 24 नवंबर 2008
बहुत दिनों तक चूल्हा रोया
बहुत दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास
बहुत दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास
बहुत दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
बहुत दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त
दाने आए घर के अन्दर बहुत दिनों के बाद
धुंआ उठा आँगन के ऊपर बहुत दिनों के बाद
कव्वों ने खुजलाई पांखें बहुत दिनों के बाद
चमक उठीं घर भर की आँखें बहुत दिनों के बाद
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शुक्रवार, 21 नवंबर 2008
सड़क सुहानी
लम्बी-चौडी सड़क सुहानी,
भेद न रखती ग्राम-नगर में
साथिन बनाती रोज़ सफर में,
सच्चे मन से सेवा करती,
लम्बी-चौडी सड़क सुहानी।
कहीं-कहीं बल खाती जाती,
कहीं-कहीं सीधा पहुंचाती,
कभी न करती है नादानी,
लम्बी-चौडी सड़क सुहानी।
साभार, रमाकांत दीक्षित
बुधवार, 19 नवंबर 2008
गुडिया रोई मुन्नी रोई
यह कविता रेखा दी ने अपनी यादों की पिटारी से निकाल कर हमें दी है। आप भी अपनी पिटारी खोलें और कवितायें bhejen gonujha.jha@gmail.com पर
नन्हीं मुन्नी ओढे चुन्नी
गुडिया खूब सजाई है,
किस गुड्डे के साथ हुई
इसकी आज सगाई है.
रंग बिरंगी ओढे चुनरिया
माथे पर चमके है बिंदिया
खन-खन खनके हाथ के कंगना
अब छोड़ चली मुन्नी का अंगना .
गुडिया रोई मुन्नी रोई
संग संग सखी सहेली रोईं
कल ही चल देगी यह तो
सोच सोच कर अखियाँ धोईं ।
-साभार, रेखा श्रीवास्तव
सोमवार, 17 नवंबर 2008
एक अजूबा हमने देखा
svapnil ne bahut din baad ek kavitaa bhejii hai-
एक अजूबा हमने देखा
कुएं में लग गई आग
पानी पानी जर गओ,
मछरी खेलें फाग
नाव में नदिया डूबी जाए
एक अजूबा हमने देखा
कुँए में लग गई आग
पानी पानी जर गओ,
मछरी खेलें फाग
नांव में नदिया डूबी जाये
-स्वप्निल
रविवार, 16 नवंबर 2008
मूंछें ताने पहुंचे थाने
चूहे जी इक रपट लिखाने
बिल्ली मौसी हवलदार थीं,
एक-दो नहीं, तीन-चार थीं,
पहली ने चूहे को डांटा,'
दूजी ने मारा इक चांटा,
बढीं तीसरी आँखें मींचे,
चौथी दौडीं मुट्ठी भींचे,
काँप उठे चूहे जी थार-थार,
सरपट भागे अपने घर पर,
फिरते हैं अबतक घबराए
लौट के बुद्धू घर को आए।
साभार- प्रकाश पुरोहित
सोमवार, 10 नवंबर 2008
जिनके बिगड़ल बा चलनियां तोड़ दे टंगडी
कैसे संभले जिंदगानी, पूछे नगरी,
पूछे नगरी, हो रामा पूछे नगरी,
जिनके बिगड़ल बा चलनियां तोड़ दे टंगडी
हो मारो झाडू आ बधानियाँ, तोड़ दे टंगडी।
घुटने, कमर लेके बैठे क्यों हो मेरे भाई
चलना सीखो मील-मील भर, मत खाओ मिठाई
वरना, जिंदगी बन जायेगी, तुम्हारी गठडी
हो तुम्हारी गठडी हो तुम्हारी गठडी
जिनके बिगड़ल बा चलनियां तोड़ दे टंगडी ।
जल ही जीवन, जीवन -धारा, धारा चलती रहती
समय भी चलता, दिन भी चलते, रात भी चलती रहती
तुम भी चल दो उठ के वरना कम जायेगी शक्ति
हो कम जायेगी शक्ति, हो कम जायेगी शक्ति
जिनके बिगड़ल बा चलनियां तोड़ दे टंगडी ।
शुद्ध साफ़ औक्सीजन भर लो साँस के इंजन में,
कर दो भस्म, घूम के, कोलेस्ट्रौल सीने में
फूलों जैसी हो जायेगी, जीवन की पगडी
हो जीवन की पगडी हो जीवन की पगडी
ऐसे संभले जिंदगानी सुनो री नगरी।
बुधवार, 5 नवंबर 2008
चंदा मामा दूर के,
चंदा मामा दूर के,
पुए पकाए गुड के ,
आप खाए थाली में,
मुन्ने को दें प्याली में,
प्याली गयी टूट,
मुन्ना गया रूठ,
हम नयी प्याली लायेंगे,
मुन्ने को मनाएंगे,
बजाकर बजाकर तालियाँ ,
मुन्ने को खिलाएंगे.
गुरुवार, 30 अक्टूबर 2008
एक सफ़ेद कबूतर
इस बार एक कविता हर्ष की, जिसे उनके ब्लॉग से लेकर इधर दे रही हूँ आप सबके लिए।
एक सफ़ेद कबूतर,
उसके दो पर,
एक इधर,
एक उधर।
दो व्यक्ति,
पहने हुए,
सफ़ेद धोती,
सफ़ेद कुर्ता,सफ़ेद टोपी,
एक सफ़ेद कबूतर के इधर,
एक उधर,
नोचने को तैयार,
सफ़ेद कबूतर के पर।
अगली सुबह,
सफ़ेद कबूतर माँग रहा था प्राणों की भीख,
बेचारा चिल्लाय भी तो कैसे,
चिल्लाना शोभा नहीं देता उसे,
जो हो शांति का प्रतीक।
-हर्ष
सोमवार, 27 अक्टूबर 2008
देश के सच्चे सपूत कहाना
छुटपन की कवितायें के लिए मैंने रेखा दी से अनुरोध किया। वे मान गई और अपने बचपन की एक कविता लिख के भेजी है, जिसे आपको पेश कर रही हूँ। आप भी हमे अपने बचपन में सुनी कवितायें भेजें, ताकि हमारी नन्ही पीढी इन्हें दुहरा सकें। कवितायें gonujha.jha@gmail.com पर भेजें।
"यह कविता मैंने बचपन में जब १९६२ में चीन की लडाई चल रही थी तो अपने स्कूल में पढ़ी थी १५ अगस्त को।"
सीमा को जाता है भाई,
बहन बधाई देने आई,
आंसू अपने रोक न पाई,
फिर भी यह कहकर मुस्काई।
देखो भैया वचन निभाना,
पीठ दिखा कर भाग न आना,
देख रहा है तुम्हें जमाना,
मत माता का दूध लजाना।
दुश्मन को तुम जाके भागना,
भारत माँ की लाज बचाना,
सीना चौडा करके आना,
देश के सच्चे सपूत कहाना
- रेखा श्रीवास्तव
सोमवार, 25 अगस्त 2008
"मौसम" पर एक कविता
गरम हवा जोरों से चलती
तन से बहुत पसीना बहता
हाथ सभी के पंखा रहता
आरे बादल, काले बादल
गरमी दूर भगा रे बादल
रिमझिम बूँदें बरसा बादल
झम-झम पानी बरसा बादल
ले घनघोर घटायें छाईं
टप-टप, टप-टप बूँदें आईं
बिजली लगी चमकने चम्-चम्
लगा बरसने पानी झम-झम
लेकर अपने साथ दिवाली
सरदी आई बड़ी निराली
शाम सवेरे सरदी लगती
पर स्वेटर से है वह भगती।
सोमवार, 4 अगस्त 2008
"माँ"
"पता नहीं, कैसा होता है उसका दिमाग कि देह
घुसे रहते हैं उसके दिल में ही
कमल में बंद भौंरों जैसे।
बच्चे को मार पिता की
कलेजा कसकता उसका
एक अच्छी साडी- बेटी के लिए
एक अच्छा बर्तन- बेटी के दहेज़ के लिए
कोई अच्छी चीज़- बच्चों के लिए
मन्दिर में प्रार्थना- कोख, सिन्दूर के लिए
अपना तो कुछ है ही नहीं
न परिभाषा सौन्दर्य की
न उपमान देह- यष्टि की
सच की कंठी तो लीनी ही नहीं
रचाने होते हैं झूठ के कित्ते -कित्ते गीत
मनुहार, लाड- दुलार
खुश रहें बच्चे अपनी विजय पर
हार में भी खिलती है उसकी मुस्कान
मायावी है क्या वह?
उफ़ भी नहीं करती
सूर्य-चन्द्र ग्रहण के लंबे-चौडे कायदे कानून
हर बार एक नया जन्म- बच्चे के जन्म पर
धत! यह पीर भी कोई पीर है?
नवजात का मुख- आनंद ही आनंद!
कलेजे में दूध की धार- फुहार
गाय, बकरी, चुहिया, कबूतरी
सभी में एक ही भाव- यह मादा-भाव
नहीं करती किसी को नाराज़
नहीं बोलती ऊंचा कि सुन ले राहू या शनि
मन-ही-मन उचारती देवी-जाप, हनुमान-चालीसा
करती रहती -सप्तमी, छठ, जितिया
व्रत -उपवास- अनगिनत
माँ हमेशा माँ ही क्यों रहती है?
चिडियां, नदियाँ, फूल-कलियाँ
तारे, मौसम, सब्जी, बगिया
भोजन, बिस्तर, किताब- कापियां
लोरी, सपने, मोर-गिलहरियाँ
सभी के अंग-संग डोलती
नहीं पूछती, नहीं जानती अपना हाल-चाल
माँ का सहारा
बच्चों का आसरा
गला घोंट अपनी कामना का
राख बना... और एक साँस में गटक
बन जाती नील-वर्णी
भरी उमस में भी- नदी, शीत, छाँह
माँ यही होती है क्या?"
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गुरुवार, 24 जुलाई 2008
कोठे ऊपर कोठारी
कोठे ऊपर कोठरी, मैं उस पर रेल चलाय दूँगी।
जो मेरा ससुरा प्यार करेगा
उसको खाना खिलाय दूँगी,
जो मेरा ससुरा करे लड़ाई, भीख माँगने भिजवाय दूँगी।
कोठे ऊपर कोठरी, मैं उस पर रेल चलाय दूँगी।
जो मेरी सासू प्यार करेगी,
उसके पाँव दबाय दूँगी,
जो मेरी सासू करे लड़ाई, रोटी को तरसाय दूँगी।
कोठे ऊपर कोठरी, मैं उस पर रेल चलाय दूँगी।
जो मेरी गोतनी (जिठानी/देवरानी) प्यार करेगी,
उसका खाना पकाय दूँगी,
जो मेरी गोतनी करे लड़ाई, चूल्हा अलग कराय दूँगी।
कोठे ऊपर कोठरी, मैं उस पर रेल चलाय दूँगी।
जो मेरा देवरा प्यार करेगा, उसको डोक्टर बनाय दूँगी
उसको इंजीनियर बनाय दूँगी,
जो मेरा देवरा करे लड़ाई, मूंगफली बिकवाय दूँगी।
कोठे ऊपर कोठरी, मैं उस पर रेल चलाय दूँगी।
जो मेरी ननदी प्यार करेगी,
उसका ब्याह रचाय दूँगी,
जो मेरी ननदी करे लड़ाई,
कॉलेज बंद कराय दूँगी ।
कोठे ऊपर कोठरी, मैं उस पर रेल चलाय दूँगी।
बुधवार, 23 जुलाई 2008
मैं अन्ग्रेज़ी पढी -लिखी
मैं अन्ग्रेज़ी पढी -लिखी, मेरी किस्मत फूट गई मम्मी जी
जब मैं जाऊं, पेपर पड़ने
ससुरा मेरा आ जाए जी,
पेपर-वेपर छोडो बहू, चाय ज़रा बना लो जी
मैं अन्ग्रेज़ी पढी -लिखी, मेरी किस्मत फूट गई मम्मी जी
जब मैं जाऊं मेक अप कराने, सासू मेरी आ जाए जी,
मेक अप, वेक अप छोडो बहू, खाना ज़रा बना लो जी
मैं अन्ग्रेज़ी पढी -लिखी, मेरी किस्मत फ़ुट गई मम्मी जी
जब मैं जाऊं टी वी देखने, ननदी मेरी आ जाए जी,
टी वी ,वी वी छोडो भाभी, साडी जरा पहना दो जी,
मैं अन्ग्रेज़ी पढी -लिखी, मेरी किस्मत फ़ुट गई मम्मी जी
जब मैं जाऊं पिक्चर देखने, देवर मेरा आ जाए जी,
पिक्चर-विक्चर छोडू भाभी, भजिये ज़रा बना दो जी।
मैं अन्ग्रेज़ी पढी -लिखी, मेरी किस्मत फ़ुट गई मम्मी जी ।
मेरी मुर्गी खो गई है ना
यह गीत भी हम सब बच्चों के थिएटर वर्कशौप में गाते हैं। बच्चे बड़े मजे ले कर इसे गाते हैं और इस पर नाचते हैं। आपका मन करे तो रुकियेगा मत। लोक गीत का रस और रिश्ते की चुहल का मज़ा आप भी लें।
मेरी मुर्गी खो गई है ना
मेरा दिल ठिकाने nahi ना
ससुर आया बोला बहू क्या बनाया खाना
तुम चुपचाप अखबार पढो ना,
मेरा दिल ठिकाने है ना
सासू आई बोली बहू, क्या बनाया खाना,
तुम चुप चाप मन्दिर जाओ ना,
मेरा दिल ठिकाने है ना
ननद आई, बोली भाभी क्या बनाया खाना,
तुम अपनी ससुराल जाओ ना,
मेरा दिल ठिकाने है ना
देवर आया, बोला, भाभी, क्या बनाया खाना
तुम अपनी दुल्हन लाओ ना,
मेरा दिल ठिकाने है ना
पति आया बोला रानी क्या बनया खाना
श ..श..श..श॥
छींके पर मुर्गी है ना
तुम चुप चाप ले के खाओ ना
ससुर से कुछ कहियो ना
तुम चुप चाप मुर्गी खाओ ना
सासू से कुछ कहियो ना
मेरा दिल ठिकाने है ना
देवर से कुछ कहियो ना
मुर्गी तुम ले कर खाओ ना
ननदी से जा कहियो ना
तुम चुप चाप मुर्गी खाओ ना।
मेरी मुर्गी खो गई है ना
मेरा दिल ठिकाने हैना
मंगलवार, 22 जुलाई 2008
रेल में छानानना छानानना होए रे।
रेल में छानानना छानानना होए रे।
रेल में बैठे दो मारवाडी
रेल में अट्ठे -कट्ठे अट्ठे- कट्ठे होए रे।
रेल में छानानना छानानना होए रे।
रेल में बैठे दो मद्रासी
रेल में इडली- साम्भर, वडा साम्भर होए रे
रेल में छानानना छानानना होए रे।
रेल में बैठे दो पंजाबी
रेल में बल्ले-बल्ले, बल्ले-बल्ले होए रे
रेल में छानानना छानानना होए रे।
रेल में बैठे दो गुजराती
रेल में खमण ढोकला, खमण खाखडा होए रे
रेल में छानानना छानानना होए रे।
रेल में बैठे दो बिहारी
रेल में पूरी भुजिया, लड्डू-पेरा होए रे
रेल में छानानना छानानना होए रे।
रेल में बैठे दो छोटे बच्चे
रल में हल्ला -गुल्ला, हल्ला-गुला होए रे।
रेल में छानानना छानानना होए रे।
सोमवार, 14 जुलाई 2008
हो चाँद मामा, चाँद मामा हंसुआ द'
हो चाँद मामा, चाँद मामा हंसुआ द' ।
सेहो हंसुआ काहे ला?
खडिया कटावे ला
सेहो खडिया काहे ला?
गैयन के खियावे ला।
हो गैयन के खियावे ला खडिया द'
हो चाँद मामा, चाँद मामा हंसुआ द' ।
सेहो गैयन काहे ला?
दूधवा दियावे ला,
सेहो दुधवा काहे ला?
लइकन के पियाबे ला
हो, लइकन के पियाबे ला दूधवा द'
हो चाँद मामा, चाँद मामा हंसुआ द' ।
सेहो लइकन काहे ला?
पाठशाला पढावे ला
सेहो पाठशाला काहे ला?
नागारिकन बनावे ला।
हो नागारिकन बनावे ला पाठशाला द'
हो चाँद मामा, चाँद मामा हंसुआ द' ।
सेहो नागरिक काहे ला?
गेंहुआ बोआबे ला,
सेहो गेंहुआ काहे ला?
सेना के खियाबे ला।
हो सेना के खियाबे ला गेंहुआ द'
हो चाँद मामा, चाँद मामा हंसुआ द' ।
सेहो सेना काहे ला?
देसवन के बचाव ला।
सेहो देसवन काहे ला?
आजादी से रहे ला
हो आजादी से रहे ला देसवन द'
हो चाँद मामा, चाँद मामा हंसुआ द' ।
शनिवार, 12 जुलाई 2008
राधा का मनुहार
मोरे सर पर गागर भारी
उतार दो गिरिधारी
तुम तो पहने पियर पीताम्बर
मैं पंचरंगिनी साड़ी
उतार दो गिरिधारी
तुम तो बेटे नन्द बाबा के
मैं वृषभानु दुलारी
उतार दो गिरिधारी
तुम तो खाओ माखन मिश्री
मैं दधि बेचनवाली
उतार दो गिरिधारी
मोरे सर पर गागर भारी
उतार दो गिरिधारी।
गुरुवार, 10 जुलाई 2008
सुनो राधे रानी
सुनो राधे रानी दे डालो बाँसुरी मोरी
सुनो जी श्याम ना जानूं बाँसुरी तोरी।
कैसे मैं गाऊँ, राधे, कैसे बजाऊँ,
कैसे बुलाऊँ राधे गैयाँ टोली
मुख से बजाओ कान्हा, मुख से तू गाओ,
हथावन बुलाओ कान्हा, गायन टोली।
सुनो राधे रानी दे डालो बाँसुरी मोरी
सुनो जी श्याम ना जानूं बाँसुरी तोरी।
बुधवार, 9 जुलाई 2008
एक और किसान गीत
आम मजरायल, बूंट गजरायल
चहके ला सरसों के फूल हो, चहके ला सरसों के फूल हो,
हँसी हँसी बोले पिया हरबहवा
चल' धनी खेतवा के ओर हो,
चहके ला सरसों के फूल हो।
कनखी से देखे ला छोटका देबरवा
मारले कनवां पे फूल हो,
चहके ला सरसों के फूल हो।
रोही-रोही बोलेले गोदी बलकवा
दिन भर ना मिलेले दूध हो,
चहके ला सरसों के फूल हो,
रविवार, 6 जुलाई 2008
एक किसान गीत
उठ भौजो भोर भेलई, काटे लागी धान हे,
सतुआ, पियाज भौजो, गठरी में बाँध हे।
नैहरा से आईल भौजो छूटलो न चाल हे,
कांडा chhandaa khol' भौजो, घूघता उघार' हे।
hansuaa dudhaar भौजो, dandavaa mein khos' हे।
jaladi se chal' भौजो khetavaa ke or हे ।
गोदवा के लईका भौजो, पीठिया पे बाँध' हे,
झटपट धान रोप', पनिया पियाब' हे।
गुरुवार, 3 जुलाई 2008
और एक प्रार्थना
स्वप्निल यह कविता स्कूलजाने से पहले जोर-जोर से बोलता था। उसकी नानी कहती हैं कि वह यह कविता वह अपनी डेढ़ साल की उम्र में ही बोलने लगा था। यह एक प्रार्थना है। स्वप्निल की शादी ११ जुलाई को हो रही है। उसे बधाई देते हुए उसी की बोली यह प्रार्थना-
हे भगवान, हे भगवान
हम सब बालक हैं नादाँ
बुरी बात से हमें बचाना
खूब पढाना, खूब लिखाना
हमें सहारा देते रहना
ख़बर हमारी लेते रहना
चरणों में हम पड़े हुए हैं
हाथ जोरकर खड़े हुए हैं
विद्या बुद्धि कुछ नहीं पास
हमें बना लो अपना दास।
लो हम शीश झुकाते हैं
विद्या पढ़ने जाते हैं।
रविवार, 29 जून 2008
एक खेल-कविता- तैरते हुए
एक कविता यह भी। ज़रा खेल के मूड में आइये और मजे लीजिए। यह खेल पानी में खेला जाता था। तब हम छोटे थे। घर के पीछे के तालाब में नहाना उअर तैरना हम सभी भाई- बहनों का शगल था, जूनून की हद तक। इस खेल को पानी में तैरते हुए ही खेला जाता था। प्रश्नोत्तरी अंदाज़ में-
तनी खुद्दी देबे? (ज़रा टूटे चावल दोगी?)
कथी ला? (किसलिए?)
परबा ला (कबूतर के लिए)
तोहर परबा मरि गेलौ (तुम्हारा कबूतर तो मर गया)
के कहलकौ? (किसने कहा?)
धोबिया (धोबी ने)
छाती पीटि के मरि जाऊ? (छाती पीट कर मर जाऊं?)
मर जो (मर जाओ)
और इसके बाद उत्तरदाता कस कर अपने सीने पर दो हत्तर लगाते हुए पीठ के बल तैरते हुए दूर-दूर तक निकल जाता। इस तैरने में वह अपने सारे अंग निश्चेष्ट रखता, जैसे कोई लाश बही जा रही हो। यह इतना मजेदार खेल होता की बस।
गुरुवार, 5 जून 2008
कुछ कवितायें- खेल-खेल की
जिप-ज़िप जू
कभी ऊपर, कभी नीचे
कभी दायें, कभी बाएँ
कभी आगे, कभी पीछे
कभी थप्पड़, कभी घूंसे
(अन्तिम लाइन बोलते हुए दो बच्चे एक दूसरे को प्यार से थापदियाते हैं।)
-स्वप्निल
( इन दोनों ही खेलों में सभी बच्चे एक लाइन में अपने दोनों पैर सामने की और फैलाकर बैठ जाते है। एक बच्चा इन पंक्तियों को बोलते हुए सभी के पैरों पर अपने हाथ फिराता है। बारी बारी से वह सभी बच्चों के नाम लेता है। अन्तिम पंक्ति पर सभी ताली बजाते हैं।)
ओल कटारा-बोल कटारा
एगो दिम्भा (पका कोई भी फल) पाया
हमने- स्वप्निल ने खाया
स्वप्निल की माँ से झगडा हुआ
धर दैन्या, धर दियां,
बीडी- सुपारी- बीडी- सुपारी।"
२
अतारो-पत्रो
सीमा गेल सीम तोड
नीमा गेल नीम तोड
कुछ दो तो रे भाई
(अन्तिम पंक्ति पर हाथ फेरानेवाला बच्चा जिस बच्चे के सामने हाथ पसारता है। वह बच्चा उसे कुछ देने का अभिनय करता है और इस तरह से खेल चलता रहता है।)
बुधवार, 4 जून 2008
मेरी गुडिया पडी बीमार
डॉक्टर देखो bhalii प्रकार
मेरी गुडिया पडी बीमार
आया, बरसा, छम-छम पानी
उसमें भीगी हदिया रानी
गीली कपडे दिए उतार
फ़िर भी गुडिया पडी बीमार
ओहो, इसको तेज बुखार
सौ से ऊपर डिग्री चार
दवा की है ये चार खुराक
सुबह-दोपहर-शाम और रात
फीस लगेगी हर इक बार
आज नगद और कल हो उधार
फीस?
जबतक गुडिया रहे बीमार
tab तक पैसा रहे उधार।
सोमवार, 2 जून 2008
डॉक्टर से २ कवितायेँ
"नीम्बू की प्लेट में
आम का अचार है
बुड्ढा नाराज़ है
बुढ़िया बीमार है
आ जा मेरे डॉक्टर, तेरा इंतज़ार है।"
- स्वप्निल
"आज सोमवार है
गुडिया को बुखार है
गुडिया गई डॉक्टर के पास
डॉक्टर ने मारी सुई
गुडिया रोई- उई, उई, उई।"
रविवार, 1 जून 2008
१,२,१०
"१,२,१०
ऊपर से आई बस
बस ने मारी सीती
ऊपर से आया टीटी
टीटी ने काटी पर्ची
ऊपर से आया दर्जी
दर्जी ने सिली पैंट
ऊपर से आया टैंक
टंक ने मारा गोला
मेरा रंग दे बसंती चोला
- स्वप्निल
गुरुवार, 29 मई 2008
ABC
एबीसी
कहं गई थी?
कुत्ते कि झ्पोअदी में सो गई थी
कुत्ते ने काट लिया
रो रही थी
पापा ने पैसे दिए
हंस ताही थी
मामी ने तौफी दी,
खा रही थी,
bhaiyaa ने जीभ दिखाई
चिढ रही थी
दीदी ने दुलार किया
मस्त हो रही थी।
सैनिक
हम सैनिक हैं, हम सैनिक हैं
लाराने को रण में जायेंगे
कुछ अपने हाथ दिखाएँगे
हम शूरवीर कहलायेंगे
घमासान हम समर करेंगे
नम जगत में अमर करेंगे
हम -सा ना बहादुर कोई है
जो कहते कर दिखालायेंगे
-------------------------- (अपूर्ण pankti)
रिपुओं के छक्के छुडायेंगे
- स्वप्निल
मंगलवार, 27 मई 2008
इंडिया गेट पे दो सिपाही
मोटू सेठ,
सड़क पर लेट
गाडी आई,
फट गया पेट
गाडी का नंबर २८
गाडी पहुँची
इंडिया गेट
इंडिया गेट पे सिपाही
मोटू जी की खूब पिटाई
शुक्रवार, 16 मई 2008
मेरा डिसीजन जानो मम्मी
मम्मी पीछे पडो ना मेरे, मुझको पढ़ना आता है,
पास करेंगे, मार्क्स मिलेंगे, मन फ़िर क्यों घबड़ता है?
हिस्ट्री, हिन्दी, साइंस, इंग्लिश, भूला नहीं मुझे कुछ भी,
फ़िर भी मेरी चिंता में, रात-रात तुम सोती नहीं,
टेंशन, लफड़े क्यों लेती हो, मैं हूँ पूरा जिम्मेदार,
पीठ पे मेरी ना तो बैठो, ना हो मेरे सर पे सवार,
अभी तो हू चौथी में, अभी से क्यों भेजो मुझको ट्यूशन?
छठवीं तक तो तुम ही पधाओगी , है ये मेरा डिसीजन।
पापा, अच्छे मार्क्स हैं आए, लाओ झट से मेरा गिफ्ट,
वादेवाला ही लाना, वादे से होना ना शिफ्ट
अभी है छुट्टी, अभी ना पढ़ना, फुल एन्जॉय करना है,
लो ना मामी तुम भी छुट्टी, गर्ल्स-ब्याय का कहना है।
मंगलवार, 13 मई 2008
फैज़ की नज्म- बेटी मुनीज़ा के लिए
यह नज्म नज्म हमारे एक मित्र हर्ष ने भेजी है अपनी टिप्पणियों के साथ। हम इसे यहं दे रहे हैं।
A great poet Faiz Ahmad 'Faiz' wrote this nazm on his younger daughter Muneeza's 8th birthday। Place -now Pakistan। Time & Year - much before we started to treat our daughters as humans।
इक मुनीज़ा हमारी बेटी है, जो बहुत ही प्यारी बेटी है
फूल की तरह उसकी रंगत है, चाँद की तरह उसकी सूरत है,
जब वो ख़ुश हो कर मुस्काती है, चांदनी जग में फैल जाती है,
उम्र देखो तो आठ साल की है, अक्ल देखो तो साठ साल की है,
वो गाना भी अच्छा गाती है, गरचे तुमको नहीं सुनाती है,
बात करती है इस क़दर मीठी, जैसे डाली पे कूक बुलबुल की है,
जब कोई उसको सताता हैतब ज़रा ग़ुस्सा आ जाता है,
पर वो जल्दी से मन जाती हैकब किसी को भला सताती है,
शिगुफ्ता बहुत मिज़ाज उसकाउम्दा है हर काम काज उसकाहै
मुनीज़ा की आज सालगिरहहर सू शोर है मुबारक का
चाँद तारे दुआएं देते हैंफूल उसकी बलायें लेते हैं,
गा रही बाग़ में ये बुलबुल“तुम सलामत रहो मुनीज़ा गुल”
फिर हो ये शोर मुबारक काआये सौ बार तेरी सालगिरह
सौ क्या सौ हज़ार बार आयेयूँ कहो के बेशुमार आए
लाये अपने साथ ख़ुशीऔर हम सब कहा करें यूँ ही,
ये मुनीज़ा हमारी बेटी हैये बहुत ही प्यारी बेटी है।
- फैज़ अहमद फैज़
सोमवार, 12 मई 2008
दिन में रात
सूरज काकू संग में अपने, पित्ज़ा लेके आए हैं।
आसमान का रंग हरा है, धरती लगती नीली है,
कव्वे कितने सुफेद लग रहे, धरती कितनी नीली है।
मैं तो चित्र बनाउऊँ ऐसे, मुझको दिखाते ऐसे सारे,
टीचर को तुम बोलो मम्मी, मार्क्स न मेरे काटे प्यारे
चन्दा मामा दिन में निकले, सूरज काकू रात में,
बिजली कितनी बचेगी मम्मी, है ना दम इस बात में।
राज़ की बात बताऊँ मम्मी, बचेंगे हम स्कूल से,
होंगे दिन में चन्दा तारे, दिन जाता स्कूल में
ज़ल्दी से उठाना न पडेगा, ब्रश-दूध पे डाँट न पड़ेगी,
टीचर भी तो सोये रहेंगे, कोई भी चिंता न रहेगी।
कित्ती अच्छी पेंटिंग मेरी, अम्मी तुम्हारे लिए है ये,
पापा को भी समझाओ, अभी न दिन है, रात है ये।
रविवार, 11 मई 2008
बचपन
हम झूला, झूले के ऊपर, झूला मेरे नीचे,
अपनी थी कागज़ की नैया, थे तेल्चात्ते, चींटे,
तितली से भी छनती गाधी, कव्वे शहद से मीठे
दादी के हाथों की मालिश, उसके प्यार की गरमी
चुटिया दीदी से ही बनेगी, ऎसी थी हठधर्मी
लिख किताब में 'चोर', सेंधामार', भइया को दिखाया नीचे
अब चुराओ फ़िर पैसे मेरे, जाओगे थाने सीधे
गोबर, मिट्टी, घास- पुआल, होली, होती निराली,
पक उपले पर सोंधी लिट्टी, आलू, चटनी सआरी,
पेड़ पे चढ़ अमरूद तोड़ना, कच्चे आम का कुच्चा
रस्सी, कबड्डी, चोर-सिपाही, आइस-पैस में गच्चा
बचपन में जीवन की बगिया, चन्दा, झूला-डोरी
बचपन मस्ती और कलंदारी, ताबदक चलती घोडी
सुबह शाम तरकारी आती, सुबह-शाम के नखरे,
धरो- सहेजो बचपन आपना जिन्दगी ना छूटे- बिखरे
शनिवार, 10 मई 2008
अबकी ऎसी छुट्टी हो
छुट्टी कि अब बात चली
छुट्टी ही दिन रात चली
धरो किताबें, कलम, सवाल
सोने हो एक ही हाल
चादर कहीं और हम हों कहीं
पापा और तुम जाओ कहीं
पेट में चूहे दौदें जब
मम्मी देना कुछ भी टैब
लेकिन कुछ भी खाऊँ कैसे
स्वाद मेरे अक्षर के जैसे
खेल -खेल और खेल खेल
चाहे दुनिया गोलामगोल
मुझसे भारी कोई नहीं
मुझसे न्यारी कोई नहीं
घडी की अब ना बात करो
छुट्टी मे संग साथ रहो
तुम भी आओ, मेरे संग
खेलेंगे हम हर इक रंग
मम्मी के संग जाना बाज़ार
पापaa के संग गुडिया बीमार
bhaiya लाए चाट उधार
दीदी की चुन्नी चताखार
ऎसी छुट्टी होए अब
इसमें ही खोएं रहें सब।
शुक्रवार, 21 मार्च 2008
आहा,आहा,होली है!
आओ दादी, खेलो होली
ठुनक-ठुनक के गुडिया बोली
तुम्हें गुलाल लगाऊँगी
रंगों से नहलाऊँगी
मालपुए फ़िर खायेंगे
दहीबडे भी चखेंगे
बोलो दादी, तुमने भी कभी
ऎसी होली खेली होगी
पोपले मुंह में भर मुस्कान
दादी बोली भर अभिमान
तेरे दादा के संग -संग
रंग, गुलाल और थी भंग
सुबह सवेरे उनका चेहरा
रंग से कर दिया लाल सुनहरा
ऊपर से रुपहला, काला, हरा
चेहरा बन गया ज्यों लंगूरा
पोपले मुंह पे चमका ख्वाब
बिन रंगों के भर गया फाग
मेरे संग भी ऎसी होली
खेलो दादी, गुडिया बोली
मंगलवार, 18 मार्च 2008
ओक्का-बोक्का
ताई ताई पुरिया
घी में चापुरिया
सुइया लेबे की डोरा?
सुई कहने पर चुटकी में उसकी हथेली उठा कर माथे पर और डोरा कहने पर पेट पर रखता है। सभी बच्चे इस प्रक्रिया से गुजरने के बाद निदेशानुसार नहाने जाते हें। लौट कर आने के बाद सर पर की मुट्ठी खोली जाती है। पूछा जाता है कि इसमें क्या है? "पूरी मिठाई" लीडर काल्पनिक पूरी मिठाई सभी को बांटता है फ़िर अपने लिए पूछता है-'मैं भी खाऊँ?' बच्चे के इनकार करने पर वह गुस्सा दिखाते हुए उसके मुंह पर उसकी हथेली ठोक देता है। बच्चा पेट वाला हाथ पीठ के पीछे छुपा कर रखता है। लीडर उसे निकालता है और पूछता है। वह जवाब देता है-"लाल लाल बौअया ।' लीडर काल्पनिक बच्चा सभी को खेलने को देता है फ़िर अपने लिए पूछता है-'मैं भी खिलाऊँ?' बच्चे के इन्कार कराने पर वह गुस्सा दिखाते हुए उसके मुंह पर उसकी हथेली ठोक देता है। पूरी प्रक्रिया बेहद मजेदार होती है। आये, आप भी खेलिए, बच्चे बनिए-
ओक्का-बोक्का
तीन तरोक्का
लौउअया लाठी
चंदन -काठी
चंदन के नाम की?
- रघुआ।
खैले कथी?
-दूध- भात
सुतले कहाँ?
- बन में।
ओढले कथी?
- पुरैन के पत्ता
धोंधिया (नाभि) पिचक।
सोमवार, 17 मार्च 2008
ABCDEFG
आज जब समझ पा रही हूँ तो लगता है, बचपन से ही कितनी गहराई से हमारे भीतर नफ़रत के बीज भर दिए जाते रहे हैं! हम हिदू हैं और इसलिए ऊंचे हैं, यह कहना नहीं पङता था, अपने -आप प्रकट कर दिया जाता था। हिंदुत्व वाद का यह आक्रमण, पाकिस्तान और मुसलमानों से घृणा का भाव तब से चला आ रहा है। आज "मि. जिन्ना " नाटक करते समय यह ख्याल आता है कि क्या वाकई जिन्ना ऐसे थे? और अगर वे ऐसे थे तो हमारे तब के लीडारान कैसे थे, जिनके कारण भारत को एक से दो और फ़िर दो से तीन होना पडा। यह कविता उसकी बानगी है-
ABCDEFG
उससे निकले गांधी जी
गांधी जी ने खाया अंडा
उससे निकला तिरंगा झंडा
तिरंगा झंडा उड़े आकाश
उससे निकला जय प्रकाश
जय प्रकाश ने फेंका भाला
उससे निकला जिन्ना साला
जिन्ना साला बड़ा बदमाश
घर-घर मांगे पाकिस्तान
पाकिस्तान में आग लगा दो
मियाँ सबका मुंह झरका दो (जला दो)
शनिवार, 15 मार्च 2008
घुघुआ मन्ना
घुघुआ मन्ना, उपजे धन्ना
तोषी खाए दूध -भतवा
कुतवा चाटे पतवा
आबे दे रे कुतवा
मारबौउ दू लतावा
गे बुढ़िया बर्तन बासन
सब सरिया के तू रखिहे
पुरान घर गिरे
नया घर उठे
शुक्रवार, 14 मार्च 2008
अटकन मटकन
फ़िर से यादआ गई एक और कविता। निर्मल प्रेम और त्याग की झलक इसमें दिखाती है, जब कहा जाता हैकि वह तो ख़ुद कच्ची सुपारी खाने के लिए तैयार है, जब कि उसे पकी सुपारी दी जायेगी। आप जानते होंगे, कच्ची सुपारी की तासीर। फ़िर भी, यह प्रस्ताव!
अटकन मटकन दही चटाकन
अए बेला तू वन जा
वन से कसैली (सुपारी) ला,
हम खाएब कच्चा-कच्चा
तोरा देबौ पक्का -पक्का
राजा बेटा अयिहें
पोखरी खनायिहें
पोखरी के भीड पर
अस्सी कौउअया
अंडा गिरे रेस में
मच्छ्ली के पेट में।
अजुआ रे अजुआ
अजुआ रे अजुआ
बाभन बजुआ
तिल्लक तेली
चार करेली
पंचे पूरी
छठे छियालीस
सत्ते सतानबे
अट्ठे गंगाजल
नब्बे निनानबे
दस भाई फुक्का
एगारह चूडी कांच के
बारह बेटी बाप के
तेलिया तेलाई के
चौदह मूडी भाई के
नाच करे भौजाई के
बुधवार, 12 मार्च 2008
इरिक मिरिक
इरिक मिरिक मिर्चैया के पत्ता
हाथी दांत समंदर छत्ता
छत्ते ऊपर तीर कमानी
काबडी खेले बड़ा जुआनी
सांप बोले चुई-चुई
परबा मांगे दाना
चल रे चल तू थाना
गीदड़ तेरा नाना .
मंगलवार, 11 मार्च 2008
ताड़ काटो..
ताड़ काटो, तरकुन काटो, काटो रे बर्खाजा
हाथी पर के धिमुनी चमक उठे राजा
राजा की रजाई, भैया की दुलाई
ईंट मारू, झींट मारो, मुन्गरी झपट्टा ।